नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञं
न प्रज्ञान घनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्।
अदृष्टम् अव्ययवहार्यम् अग्राह्यम् अलक्षणम् अचिन्त्यम्
अविपदेश्यम् एकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमम्
शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः
सामान्य जीवन जीते हुए अथवा साधक के रूप में परमात्मा की खोज करते समय हम अपनी बुद्धि का प्रयोग जीवन पर्यन्त करते रहते हैं। वस्तु स्थिति में मनुष्य के जीवन में बुद्धि सर्वोच्च पद पर आसीन है। वास्तव में यह बुद्धि ही मनुष्य का सबसे बड़ा अस्त्र है, कल है, औजार है। परंतु इसकी सीमा कहाँ तक है? इस बारे में इस श्लोक में विचार किया गया है।
वेदान्तिनों में बहुचर्चित माण्डूक्योपनिषद् के इस श्लोक में प्रज्ञा शब्द का उपयोग कई बार किया गया है। क्या है प्रज्ञ? व्याकरण के अनुसार "ज्ञ" अक्षर ज्ञान के सभी रूपों का कारक है और "प्र" एक प्रत्यय है जो कि शब्दों के आरंभ में लगकर उन्हें गहराई, गंभीरता अथवा विशालता का अर्थ देता है। जैसे प्रभात अथवा प्रशांत आदि। इस प्रकार प्रज्ञ वह स्थिति है जिसमें एक चेतन प्राणी अपने आस-पास के बारे में समूल जानकारी प्राप्त करता है। इस प्रकार परम तत्व के विषय में ऋषि कहते हैं कि --
परमात्मा हमारे अंदर (मन, बुद्धि, अहंकार आदि) देखने वाली प्रज्ञा नहीं है। न ही परमात्मा बाह्य जगत् में अर्थात् इंद्रियों के प्रयोग से जगत् का अनुभव कर सकने वाली प्रज्ञा है। हमारे बाहर और अंदर दोनों प्रकार के अनुभवों की पहचान करते हुए एक ही समय में इन दोनों अनुभवों का ज्ञान करने वाली प्रज्ञा भी परमात्मा नहीं है। परमात्मा प्रज्ञान घन अर्थात् जब केवल और केवल प्रज्ञा ही उपलब्ध हो वह प्रज्ञान घन भी परमात्मा नहीं है। परमात्मा मनुष्य में इन सब प्रकार के बुद्धि के रूपों से परे तथा बिना किसी विशेषण वाली प्रज्ञा भी नहीं है। यहाँ तक कि प्रज्ञा की अनुपस्थिति होती है तब वह स्थिति भी परमात्मा नहीं है। अंतर, बाह्य और उभय प्रकार की बुद्धियाँ तो सरलता से समझ में आ जाती है, परंतु “न अप्रज्ञं” हमें दिग्भ्रमित कर सकता है। इस हेतु ऋषि यहाँ बल देकर यह कहते हैं कि, हम प्रज्ञ शब्द को जिस भी प्रकार की सोच या समझ से समझ सकते हैं, उनमें से परमात्मा कोई भी नहीं। बुद्धिवादी व्यक्ति जीवन में बुद्धि को ही अंतिम नियंता समझने लगते है, इसलिए इस श्लोक में ऋषि इसका निषेध करते हैं। तब क्या है परमात्मा?
अदृष्ट: इसके उत्तर में ऋषि आगे कहते हैं, परमात्मा अदृष्ट है अर्थात् जगत् की अन्य वस्तुओं की तरह मनुष्य की आँखों को नहीं दिख सकता। तब क्या माइक्रोस्कोप से दिख सकता है? यदि हम ऐसा सोचते हैं, तो विचार करने की बात यह है कि माइक्रोस्कोप वास्तविकता में क्या है? इसे एक उपनेत्र (चश्मे) की भाँति समझा जा सकता है, जिसके द्वारा अत्यंत सूक्ष्म वस्तुओं को भी मनुष्यों की आँखों से देखा जा सकता है। इस प्रकार, यह एक ऐसा यंत्र है, जो आपकी देखने की शक्ति को अत्यंत प्रभावशाली बना देता है। परंतु क्या माइक्रोस्कोप से आप वायु को देख पायेंगे? वायु न तो मात्र आँखों से देखी जा सकती है और न ही माइक्रोस्कोप की सहायता से। वस्तुतः वायु तो नेत्रों के अनुभव का विषय नहीं है, वरन् त्वचा का विषय है। इसी कारण आप इसी वायु को आप अपनी त्वचा पर अनुभव कर सकते हैं। सुगंधित वायु को आप अपनी त्वचा के साथ-साथ नासिका के द्वारा भी अनुभव कर सकते हैं। पेड़ों के हिलते हुए पत्तों को देखकर आप वायु बहने का अनुमान लगा सकते हैं। वातावरण में साँय-साँय सुन कर आप तेज गति से बहने वाली वायु का भी अनुमान लगा सकते हैं। इस प्रकार वायु इंद्रियों के अनुभव की वस्तु है। परंतु क्या आप अपने विचारों को अथवा अनुभवों को देख सकते हैं? नहीं! इसीलिए यहाँ जब ऋषि कहते हैं कि, "परमात्मा अदृष्ट है" अर्थात् दिखने वाली चीज नहीं है, तब हम उसका अर्थ यही समझते हैं कि परमात्मा आँखों को दिखने वाली वस्तु नहीं है। उसके होने या न होने का अनुमान इंद्रियों को नहीं लगता।
अव्यवहार्य:इसके आगे के शब्दों के अर्थों का विश्लेषण कुछ आसान हो जाता है। हम देख चुके हैं कि परमात्मा अदृष्ट है, लेकिन वह अव्यवहार्य भी है, अर्थात् परमात्मा के साथ कोई लेन-देन नहीं किया जा सकता। उसका सम्मान अथवा अपमान नहीं किया जा सकता। उसे आराम नहीं पहुचाया जा सकता है, उसके साथ अच्छा व्यवहार अथवा अशिष्ट व्यवहार नहीं किया जा सकता। व्यवहार क्या है? अपनी बुद्धि अथवा मन के द्वारा जब हम किसी अन्य के साथ कोई मानसिक अथवा भौतिक कार्य करते हैं, तब उसे व्यवहार कहा जाता है। जैसे आपने किसी को अपने घर बुलाकर अथवा किसी सभा में अन्य बुद्धिधारियों के समक्ष विशेष सम्मान किया अथवा सम्मान नहीं किया तब उस अवस्था में हम इसे अच्छा व्यवहार अथवा अशिष्ट व्यवहार कहते हैं। इस प्रकार व्यवहार भी बुद्धि का ही खेल है। लेकिन व्यवहार एक सीमा तक विकसित बुद्धि का खेल है, अविकसित बुद्धि का नहीं। उदाहरण के लिए आप किसी मनुष्य, गाय अथवा कुत्ते को डण्डे से पीटने को उद्दत होने लगें तो वह आपकी मंशा समझ कर आपसे दूर हट सकता है। लेकिन एक मक्खी या फलों पर घूमने वाले भुनगे को हाथ से उड़ाने की चेष्टा करने पर भी क्या वही प्रभाव होता है? इस प्रकार इन उदाहरणों से हम समझ सकते हैं कि अन्य बुद्धिधारी प्राणियों की भाँति परमात्मा के साथ शिष्ट अथवा अशिष्ट दोनों प्रकार के व्यवहार नहीं किया जा सकता। परमात्मा एक और कोई जीव (मनुष्य, कुत्ता, मछली या अन्य कोई जीव) आदि नहीं है। इसलिए उसके साथ अन्य जीवों की भाँति व्यवहार नहीं हो सकता। अव्यवहार्य कहने के पीछे ऋषि की वास्तविक मंशा यही है कि हम परमात्मा को अन्य जीवों की तरह समझने की त्रुटि न करके अपनी बुद्धि को सामान्यतः की जाने वाली भूल से बचाएँ!
अग्राह्य:किसी वस्तु का हाथों अथवा पैरों से ग्रहण करने की अवस्था को ग्राह्य कहते हैं। वस्तु आकार में इतनी अधिक बड़ी हो सकती है कि आपके हाथों या पैरों की पकड़ में न आये। अथवा इतनी छोटी भी हो सकती है कि आपकी चुटकी तक में न आये। इस प्रकार परमात्मा भौतिक रूप से ग्रहण की जा सकने वाली वस्तु नहीं है। किंचित परिस्थितियों में ग्रहण करने की प्रक्रिया हम बुद्धि से भी समझते हैं। इस प्रकार की वस्तुओं या विचारों को बुद्धिग्राह्य कहते हैं। आज के इस आधुनिक युग में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे मनुष्य अपनी बुद्धि से ग्रहण नहीं कर पाता! इसलिए बुद्धिमान लोगों को यह पढ़कर संदेह हो जाता है कि परमात्मा को क्यों बुद्धि का प्रयोग करके नहीं समझा जा सकता! ऐसे प्रश्न का त्वरित उत्तर मनुष्य यह कहकर देता है कि इस प्रकार की कोई वस्तु संभव ही नहीं है। इस प्रश्न का एक अत्यंत जटिल उत्तर यह है कि चूँकि बुद्धि जगत् की अन्य वस्तुओं की भाँति इस जगत् का ही एक अंग है, इसलिए इस जगत् से बाहर की कोई वस्तु उसके ग्रहण में आनी संभव नहीं है। गणित, विज्ञान, भौतिकी, रसायन, जीवविज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, संगणकीय विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र (सामान्यतः प्रचलित संस्करण) ये सब इस जगत् पर कार्य करते हैं, इसलिए इनकी सहायता से इस जगत् की विभिन्न वस्तुएँ तो ज्ञात हो जाती हैं, परंतु इस जगत् से बाहर की वस्तुएँ इनके कार्य क्षेत्र से बाहर होकर अग्राह्य हो जाती हैं।
अलक्षण: परमात्मा लक्षणों से नहीं जाना जा सकता अर्थात् संकेतों से परमात्मा के बारे में नहीं बताया जा सकता। उदाहरण के लिए धुँए को देखने से अग्नि का संकेत मिलता है। किसी स्वतः चलते-फिरते प्राणी (मशीनी रोबॉट प्रत्यक्ष रूप से इसका अपवाद हैं, परंतु उन्हें भी कोई चेतन व्यक्ति ही जन्म देता है) को देखकर चेतना का संकेत मिलता है। इस प्रकार अचल को देखकर जड़ और चल को देखकर चेतन वस्तुओं का ज्ञान होता है। परंतु ऋषि कहते हैं कि परमात्मा जड़ और चेतन दोनों से परे भी है और इन दोनों में ही विद्यमान है। जगत् में जिस प्रकार सारे कार्य-कलाप चलते रहते हैं, उनको देखकर निश्चित रूप से यह नहीं जाना जा सकता है कि परमात्मा है कि नहीं! इस विचार से परमात्मा को जानने के लिए कोई निश्चित संकेत नहीं किया जा सकता, इसी कारण से हम दिग्भ्रमित हो जाते हैं। । यह अवश्य है कि ज्ञानियों ने इसके लिए प्रक्रिया बताई है जिसे हम वेदान्त अथवा औपनिषदिक ज्ञान के रूप में जानते हैं।
अचिन्त्य: हम जानते हैं कि किसी विषय पर विचार करना चिंतन कहलाता है। आधुनिक मानवों ने जिस प्रकार विज्ञान के विषय में प्रगति की है, उसका आधार चिंतन ही है। गणितज्ञों, भौतिकविदों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों और अन्य विषयों के विद्वानों ने चिंतन की प्रक्रिया का आधार लेकर ही इन सब विषयों में प्रगति की है। सामान्य शब्दों में कहें तो विचार करना अथवा किसी विषय के बारे में सोचना ही चिंतन है। यह भी स्पष्ट है कि चिंतन बौद्धिक कार्य है। अब यहाँ ऋषि कहते हैं कि परमात्मा अचिन्त्य है तो इससे उनका तात्पर्य है कि सोचने मात्र से परमात्मा नहीं प्राप्त होता। दूसरे शब्दों में अन्य विषयों की भाँति केवल सोचकर अथवा प्रयोगशाला में प्रयोग द्वारा अथवा गणित की गणनाओं से परमात्मा नहीं प्राप्त होता। स्वाभाविक है कि यदि बुद्धि से अथवा चिंतन से परमात्मा नहीं मिलेगा तब हमारे पास और क्या साधन है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि परमात्मा की साधना में बुद्धि और चिंतन काम तो आते हैं, परंत केवल एक सीमा तक। तार्किक विधि से अथवा प्रयोगात्मक विधि से परमात्म ज्ञान नहीं होता। केवल चिंतन से परमात्मा नहीं प्राप्त होता, परंतु चिंतन साधक को इस योग्य बनाता है कि परमात्म ज्ञान की दिशा में यथोचित् प्रगति हो सके।
अविपदेश्य: जिस समय इस उपनिषद् की रचना की गई उस काल में किसी छात्र या शिष्य को ज्ञान देने की प्रक्रिया को उपदेश देना कहते थे। कई सहस्त्र वर्षों पहले आज की भाँति लोगों को मैदानों, पंडालों अथवा हाल इत्यादि में बैठ कर किसी महात्मा अथवा ज्ञानी व्यक्ति के उपदेश सुनने की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। जो भी ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध है, उससे यह प्रतीत होता है कि विद्या प्राप्त करने के इच्छुक लोग अपने बालकों को ऋषि, गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेज देते थे। यातायात की आज जैसी सुविधाएँ उपलब्ध न होने के कारण तथा ऋषि अथवा गुरु का आश्रम किसी अन्य प्रदेश में होने पर वहाँ तक पहुँचने में कई दिन लग जाते थे। उदाहरण के ईसा के जन्म से पूर्व लगभग 329वीं शती के काल में चाणक्य पहले तो पाटलिपुत्र में अध्ययन के लिए तत्पर रहे। परंतु कुछ समय पश्चात् राजा धनानन्द के रुष्ट होकर उनके पिता और माँ की मृत्यु के पश्चात् वे पाटलिपुत्र (पटना) को छोड़कर तक्षशिला (गाँधार, अफगानिस्तान) में शिक्षा प्राप्त करने गये थे। इस काल में विद्याअध्ययन के लिए पटना और गाँधार दो ही व्यवस्थित स्थान थे। इसके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर आचार्य/गुरु अपनी क्षमता और राजा की सहायता आदि से छात्रों को पढ़ाते थे। इस समय उन्हें जो शिक्षा दी जाती थी, उसे उपदेश कहा जाता था। इस संदर्भ में जिस प्रकार आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं, उसी प्रकार उपदेश देकर परमात्मा को नहीं जाना जा सकता। इसको आज के परिप्रेक्ष्य में समझें तो परमात्मा के बारे में कक्षा में पढ़कर नहीं सीखा जा सकता। अथवा परमात्मा के विषय में बौद्धिक तर्कों से एक-दूसरे के नहीं समझाया जा सकता। यहाँ आप सोचने लग सकते हैं कि यदि परमात्मा के विषय में एक दूसरे को बताया नहीं जा सकता, तब धार्मिक प्रवचन क्यों होते हैं? सतसंग क्यों होता है? स्वाध्याय क्यों किया जाता है? इस विषय में पुस्तकें क्यों छपती हैं? इसका उत्तर यह है कि, केवल उपदेश देने या सुनने से परमात्मा को पूर्णतः तो नहीं समझा जा सकता, परंतु उपदेशों के श्रवण और मनन से साधक को परमात्मा को समझने में सहायता मिलती है। इस प्रकार श्रवण, मनन और निदिध्यासन और ध्यान से परमात्मा को जाना जा सकता है। इस विशेषण का मूल अर्थ यही समझा जा सकता है कि केवल बुद्धि और बौद्धिक तर्कों तथा साधनों के प्रयोग द्वारा परमात्मा को समझना संभव नहीं है।
एकात्मप्रत्ययसारम्: एक आत्मा जो प्रत्ययों का सार है। अभी तक नेति-नेति (न इति – न इति अर्थात् यह नहीं, यह नहीं) का प्रयोग करने के बाद ऋषि अब बताते हैं कि परमात्मा क्या है। परमात्मा एक है, परमात्मा सभी प्रत्ययों अर्थात् विचारों का सार है। किसी भी चेतन प्राणी का समस्त जीवन विचारों से ही संचालित होता है। शारीरिक कार्य जैसे भूख, प्यास, आना-जाना, अन्य लोगों से बात-चीत करना, यहाँ तक कि अपने आप से बात करना, हर क्रिया के पीछे उससे संबंधित विचार हमें अवश्य आना चाहिए, तभी हम किसी कार्य के लिए उद्दत होते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो जब हम भूत काल में हुई किसी घटना पर विचार कर रहे हों, अथवा भविष्य की कोई योजना बना रहे हों, अथवा इस समय किसी कार्य में लगें हों। इन सभी परिस्थितियों में कोई-न-कोई विचार हमारे हमें आता है, हम उस विचार की योग्यता को बुद्धि पर परखते हैं। बुद्धि उस विचार के विषय में जो निर्णय देती है उसके अनुसार ही हम अपना अगला कार्य करते हैं। यदि किसी विचार से हमें प्रसन्नता मिलती है तब उससे हमारा मन सुखी होता है और वहीं यदि किसी विचार से हमें दुःख मिलता है तब हमारा मन दुःखी हो जाता है। प्रत्यय सार को समझने के लिए शंकराचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार हर लहर का सार जल है उसी प्रकार हर विचार का सार चेतना है। समस्त जगत् में व्याप्त यह चेतना केवल एक ही है जो सभी विचारों, मन, बुद्धि, अहंकार और विभिन्न मानवीय गुणों का मूल कारण है।
प्रपञ्चोशमम्: पंचकोषों अथवा पंच ज्ञानेन्द्रियों का उपशम होने पर जो अवस्था प्राप्त होती है उसे प्रपञ्चों का शमन कहते हैं। यह शरीर पाँच विभिन्न कोषों से बना हुआ जिन्हें अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमयकोष, आनन्दमयकोष के नाम से जाना जाता है। ये हमारी विभिन्न अवस्थाओं (शारीरिक, मानसिक आदि तलों के रूप) में जाने जाते हैं। जीवन जीते हुए जब हमारा ध्यान शरीर के कार्य-कलापों पर केंद्रित होता है, तब हम उस समय अन्नमय कोष में जी रहे होते हैं। जब हमारा ध्यान शरीर की प्राणवायु, स्नायु तंत्रों, नाड़ियों आदि पर आधारित कार्य-कलापों से प्रभावित होकर साँस, प्रतिरोधक शक्ति अथवा जीवन संचालिनी वायु पर केंद्रित होता है तब हम प्राणमय कोष में जी रहे होते हैं। जब हमारा ध्यान शरीर की अपेक्षा अपनी मनो भावनाओं पर केंद्रित होता है, तब हम मनोमय कोष में जी रहे होते हैं। जब हमारा ध्यान अपने शरीर, मन की अपेक्षा बौद्धिक और तार्किक प्रक्रियाओं में लगा होता है, तब हम विज्ञानमय कोष में जी रहे होते हैं। जब हमारे शरीर, मन, बुद्धि सक्रिय नहीं होते हैं उस अवस्था में हम इन सभी के प्रभाव में न होकर शांत, आनन्दावस्था में होते हैं। यह अवस्था गहन निद्रा में भी हमें प्राप्त होती है, जिससे हमें अपने नित्य प्रति के जीवन की ऊर्जा मिलती है। जब जाग्रत अवस्था में हमारे चारों कोषों का प्रपञ्च शांत हो और हम पाँचवें कोष से प्रभावित होकर निद्रा में न हों तब उस प्रपञ्चोशम अवस्था में हम परमात्मा को जान सकते हैं।
शान्तम:परमात्मा शान्त है। यह शान्त ओम के उच्चारण का अंतिम चरण है। यह शान्त वही स्थिति है जो सभी प्रपञ्चों की समाप्ति की स्थिति है। सृष्टि के आरंभ से पहले भी यही शान्त है और सृष्टि के अंत के पश्चात् भी यही शान्त है। जिस प्रकार पुराने समय एक डण्डे के शीर्ष पर बंधी अग्नि पताका को हाथों से तेज गति से एक चक्र में घुमाया जाता था। उस घूमते चक्र को देखने पर एक वृत्त दिखाई देता था, वहीं जब घुमाने वाले हाथ रुक जाते थे तो वृत्त अदृष्ट हो जाता था। आधुनिक उदाहरण लें तो, मेज पर रखे हवा देने वाले विद्युत पंखा जब तेज गति से चलकर हवा देता है तो उस समय उसकी पंखुड़ियाँ नहीं दिखती, बल्कि एक ठोस वृत्ताकर चकरी दिखती है। उसी प्रकार सारे प्रपञ्च शांत हो जाने पर परमात्मा का ज्ञान सुलभ हो जाता है। ऋषि, मुनि और ज्ञानी लोग सदा कहते हैं कि मन इतना अधिक प्रमथनशील है कि उसकी चकरी अनवरत् चलती रहती है। इस चलती चकरी के कारण शान्त अवस्था नहीं आती और वह परमात्मा सुलभ नहीं होता।
शिवम् : शिव का अर्थ कल्याण। सभी शिवोपासना करने वाले लोग भली-भाँति जानते हैं कि शिव कल्याणकारी हैं। इसी प्रकार चूँकि यह जगत् परमात्मा से ही उद्भव होता है इसलिए स्वाभाविक ही है कि परमात्मा इस जगत् के लिए शिव हैं, कल्याण हैं।
अद्वैतम् : अद्वैतम् का अर्थ है जिस जैसा कोई दूसरा नहीं है। इसे समझने का एक सरल उपाय है अपने आस-पास दृष्टि दौड़ाना। पृथ्वी के विषय में जब से हमारी जानकारी बढ़ी है, हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी पर फैली वायु एक ही है, वही वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर आती जाती रहती है, उसके कोई खण्ड नहीं है। ऐसा नहीं है कि भारत की वायु और चीन की वायु अथवा अमेरिका की वायु वास्तव में अलग है और अफ्रीका और यूरोप की वायु अलग। परंतु इससे भी अधिक अच्छा उदाहरण आकाश या वैज्ञानिक शब्दों में कहें तो अंतरिक्ष का है। इसी अंतरिक्ष को हम ब्रह्माण्ड के नाम से भी जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि ब्रह्माण्ड एक ही है। अगर ध्यान दें तो ब्रह्माण्ड शब्द स्वयं ब्रह्म अर्थात् परमात्मा के विषय में हमें जानकारी देता है। इसी से हमें पता चलता है कि ब्रह्माण्ड परमात्मा में है, न कि परमात्मा ब्रह्माण्ड में। जब ब्रह्माण्ड एक है तो परमात्मा भी एक ही है, अद्वैतम् है।
सः आत्मा स विज्ञेयः ऋषि कहते हैं, जो शान्त है, शिव है, वही अद्वैत है वही आत्मा है और उसे ही जानना चाहिए और उसका साक्षात् ज्ञान करना चाहिए न कि मानवीय बुद्धि की सीमाओं में अटककर अपने को बंधनों में बाँधे रहना चाहिए।